Ujale ki talash

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milega

शनिवार, 18 जुलाई 2009

कही तो हम भी हैं

ख़ुद को पहचानने में इस तरह दिक्कत हो रही है कि शीशा भी धोखा देने को आतुर है. भीड़ बढती जा रही है. कभी कभी ऐसा लगता है की  पशुओ की भांति हम पैसे की घास चर रहें हैं. चलिए, ये तो बड़ी पुरानी बात है, नई बात हैं की हम अपना वजूद भूलते जा रहे हैं. स्वाभिमान  तो कब का मर चुका है. एहसान और स्वाभिमान के बीच एक दिन शरारत हो गयी. एहसान फरामोश स्वाभिमान निष्कर्ष निकला.
             मेर घर में कुछ विद्वान हैं, कल जब मैं घर गया तो मेरी उनसे एक बात की बहस हो गयी. मुद्दा भी बड़ा अजीब था. अँगरेज़ हमारे  देश में आयें २०० साल राज किया. ये बात ठीक है लेकिन बहस ये थी की अंग्रेजो ने हमें बहुत कुछ दिया ये कहना था मेरे एक एक रिश्तेदर का जो की मेरे घर के बड़े ही खास हैं. मैं उनका सम्मान भी करता हूँ चूकी उन्हें अच्छा खासा ज्ञान है. लेकिन एक बात मेरे मन में खटकती थी की उनकी एक आदत थी की अपनी बात को मनवाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे. मेरी कमी थी की मैं अक्सर शांत रहता था लेकिन जब बोलने का मन बना लेता था तो पीछे नहीं हटता था. साथ मैं अपना आप़ा खो देता था. दरअसल बात का बतंगड़ बनने का कारन ये था की मेरा कहना था की अंग्रेजो ने हमें दिया कुछ नहीं बल्कि उन्होंने  जो किया अपने लिए किया. जिसका फायदा हमने उठा लिय. वे तर्क देते हैं की अंग्रेजो ने देश को शिक्षा व रेल दिया है. ये सब देकर अंग्रेजो ने हम पर उपकार कर दिया हैं.मैंने इस बात को मानने से इंकार कर दिया. आप ही बताएं की आप के घर में आये और जबरदस्ती रहने लगे और घर में सरे सामान पर अपना अधिकार जमने लगे , हो सकता हैं की वो आपकी पुरानी चीज को सही उपयोगी बना दे.बाद में वो घर छोड़ कर चला जाए. तो क्या हम उसका एहसान मानेगे?  ये अपने अपने विचार तय करंगे.
         लेकिन यदि बात अंग्रेजो की हो रही हो तो मै नहीं मानूंगा. शायद लोग भूल  रहे हैं की आजादी दिलाने वाले महात्मा गाँधी को इसी रेल से धक्के मर कर फेंक दिया गया था. यह रेल अंग्रेजो ने अपनी सुविधा के लिए बनाया था गनीमत ये की वे इसे लेकर नही जा सके. शायद एक दिन हम खुद रेल बना लेते. किसने क्या दिया और किसने क्या लिया. इसका निर्णय उलझाने वाला  है. बात होती गयी, शुरुवात में दोनों ओर से  अपनी सारी विद्वता झोख डाली गयी. मजे बात ये थी की हम बार बार एक ही बात को दोहराने लगे. बची खुची विद्वता  ख़तम होने लगी और एक समय आया की सारा ज्ञान ख़तम हो गया. और किसी ने सच कहा है की  जब ज्ञान ख़तम हो जाता है तो इंसानों और जानवरों में कोई फर्क नही रह जाता है. इन्सान के अन्दर बैठा जानवर जाग गया. होना क्या था हालत ऐसे थे जैसे की गली के दो कुत्ते भौंक रहे हों, आवाज जिसकी ऊँची थी वही तेज लग रहा था. आवाज बढती गयी और काफी हद तक बढ़ भी गई , दोनों जानते  थे की  मामला गड़बड़ हो सकता है. बड़ा मुश्किल दौर था बच निकलने का. चूकी  बात स्वाभिमान की लड़ाई तक पहुँच गयी थी. जो शांत होता उसे हार का सामना करना पड़ता. ये बात तो तय है की रिश्तेदार जी को मुझसे जायदा ज्ञान था, तो मैं भी कोई घास फूस नहीं था.  आदत लाचार था की  मै कम ही मौके पर बोलता था लेकिन जब बोलना शुरू किया तो शांत नहीं हो सकता. इसके लिए मेरा तर्क था की मै स्वाभिमान के इतर कुछ भी सौदा नहीं कर सकता. फिलहाल एक प्रश्न मेरे अभिमानी दिमाग में बार बार कौंध रहा है की इस कम्पीटीशन में क्या मुझे शांत हो जाना चाहिए था की अपने स्वाभिमान के लिए लड़ना चाहिए था.
         धीरे धीरे ज्ञान का जो भी थोडा बहुत अंश बचा था वह पूरी तरह ख़तम हो गया था. आंखे जो की अब तक लिहाज से इधर उधर कर रही थी वो अब खुल कर आमने सामने आ गयी. मजे की बात है कि दोनों ओर से निकल रहे शब्द हम दोने के  लिए उतने  बुरे  नही थे कि जितना की इस संग्राम को सुनने  वालो को लग रहे थे. शब्दों ने सारी गरिमा खो दी थी. दोनों विवश थे. जाने अनजाने में क्या क्या कह दिया ये मुझे भी नहीं पता. ये एहसास था कि  मैं छोटा हूँ  और ये भी जनता था की मैंने शिष्टता खो दी है. संघर्ष अपनी चरम पर था रात साढ़े १२ बज गए. गला सूख गया था, थकान चेहरे पर साफ़ देखी जा सकती थी. दोनों के शब्दो में धीरे धीरे अब शांति आ ही गयी थी. दोनों ये समझने लगे थे की अब जायदा हो रहा है.
         इतने में एक ऐसी आवाज आई जो हम दोनों से अलग थी. इस आवाज से बने एक एक शब्द से वाक्य ने मानो पूरी धरा को प्राणहीन कर दिया हो. ऐसा लगा की किसी ने मेरी गर्दन पर तेजधार चाकू से चीर कर वार  कर दिया हो. निर्ममता और नाशकारी वाक्य थे. इस बेदखली ने मुझे निहत्था कर दिया. इससे पहले मेरी शिष्टता इतनी भी ख़तम नहीं थी की किसी को दुखी करता , लेकिन इस वाक्य के बाद कही से भी मुझे शालीनता का परिचय देने की जरुरत नहीं बची थी. मैंने शालीनता  का  सागर अब पूरी तरह लांघ दिया और सूखे आक्रोशित गले से शब्दों कि जो वर्णमाला निकली   जिसने रिश्ते को निश्तेज कर दिया . शब्द कि लय निरशा जनक थी लेकिन गरिमा हीन नहीं थे . हा इतना जरुर था की उतेजना में शब्द की बुलंदी जायदा  ऊपर चली गयी थी.  संभव है की इस बुलंदी ने रिश्तेदार को ऐसा एहसास दिला दिया की मैंने सारी  मर्यादा तोड़ दी हो और उन्होंने  तब वो शब्द कह दिया था जो नित्य एक दलाल दूसरे दलाल को कहता है. इसका  वर्णनं नही बताऊंगा क्योकि आपको मेरी औकात पता चल जाएगी.