Ujale ki talash

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रविवार, 18 जुलाई 2010

सर्वे भवन्तु सुखिना वाले क्या आतंकवादी हो सकते हैं?

जिनकी संस्कृति में खाने से पहले गाय , कौवों और चीटियों के लिए पहला निवाला निकाल दिया जाता हो , वो क्या आतंकवादी हो सकते हैं?? ओह ! कितना दुखद है. हो सकता इस वैचारिक क्रान्ति में मेरी बात  से लोग  सहमत न हो. अपनी दया और सहिष्णुता के कारण लोग हिन्दुओ को कमजोर समझ लेते हैं. आज नौबत यहाँ तक पहुच गयी है कि हिन्दुओ को आतंकवादी दिखाया जा रहा है . जो समरसता कि गंगा में डुबकी लगा कर " सर्वे भवन्तु सुखिना " कि कामना करता हो वो आतंकवादी कैसे हो सकता है. मुस्लिम तुष्टिकरण के नीति अत्यंत भयावह हो सकती है. सत्ता आसीन कांग्रेस का ये शर्मनाक खेल बर्दाश्त नही हो सकता है. वोटो कि खातिर कुछ सरफिरो को अपनी पनाह देकर हिन्दुओ को आतंकवादी बताना अपनी ही जननी कि हत्या के सामान है. सब तुले है हिन्दू अखंडता को तोड़ने में . हिंदुत्व का झंडा फ़हराने वाली भाजपा जिसे जिन्ना पार्टी कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगी सिर्फ अवसरवादी है .


एक बात और स्पष्ट हो जानी चाहिए यदि हिन्दू आतंकवादी होते तो न हिन्दुस्तान में रह मुसलमान होते और न ही पाकिस्तान होता. हिन्दुवों को अपनी रक्षा के लिए स्वयं आगे आना पड़ेगा.

बुधवार, 5 मई 2010

किराये के कातिल को फांसी सूत्रधार से दुआ सलाम

कसाब को फांसी देना जरूरी है? आमिर अजमल कसाब को फांसी की सजा क्यों नहीं सुनाई जानी चाहिए थी? अव्वल तो ये है कि हम एक कुख्यात आतंकवादी संगठन के भाड़े के हत्यारे को उसके देश में और दुनिया में भारत की जमीनी हकीकतें नहीं समझने वालों की नजर में कसाब के तौर पर एक और शहीद बढ़ा देंगे और दूसरे फांसी से तो एक पल में  सारा किस्सा खत्म हो जाता है, मगर जेल की जिंदगी और वह भी एक इतने कुख्यात हत्याकांड के खलनायक की जिंदगी आसान नहीं रहने वाली और कसाब के जरिए हम दुनिया को संदेश दे सकते हैं कि हमे खून के बदले खून नहीं चाहिए। इस तर्क से असहमत ज्यादातर लोग होंगे मगर मेरा विनम्र आग्रह यह है कि कसाब आखिर सूत्रधार नहीं, सिर्फ एक किराए का कातिल है। फांसी पर चढ़ाना है तो पहले मुशर्रफ को चढ़ाओ, उसे कारगिल की सजा दो, नवाज शरीफ को अदालत में घसीट कर लाओ और जॉर्ज बुश जो अभी जिंदा हैं और अभी जिन्हें अलजाइमर की बीमारी नहीं हुई हैं, उन्हें  गवाह के तौर पर घसीट कर लाओ। कसाब ने अलग अलग मौकों पर आईएसआई के जिन आकाओ के नाम बताये  हैं और भारत की कानूनी एजेंसियो के पास जिनके रिकॉर्ड मौजूद हैं, फोन नंबर मौजूद हैं, पते और फोटो भी मौजूद हैं उन्हे भारतीय कानून का सामना करने के लिए मजबूर करो तो कोई बात हो। कसाब तो एक मामूली गरीब परिवार का बेटा है जिसे कत्ल कारोबार और रोजगार के तौर पर थमा दिया गया। कसाब से मेरी कोई सहानुभूति नहीं है। पकड़े जाते वक्त भी जिस तरह वह तुकाराम ओंबले के पेट में दनादन गोलिया दागता रहा था, एक कातिल के तौर पर उसे सजा दिलवाने के लिए सिर्फ यही गुनाह काफी है। उस पर तो भारतीय दंड विधान की धाराओं के तहत 87 आरोप लगाए गए थे जिनमे  से 84 प्रमाणित हो चुके हैं। लेकिन सिर्फ एक  साल कुछ महीने कसाब को सुरक्षित जिंदा रखने पर 33 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं और उसे एक झटके में फंदे पर लटका देने से आगे के सारे रास्ते बंद हो जाने वाले है। कसाब को जिंदा रखो और उसके जरिए पाकिस्तान की असलियत दुनिया को बताते रहो। दूसरे विश्व युद्व में हजारों लोगों को मार डालने वाले लोगों के खिलाफ मुकदमा चला कर बहुत सारे सबूत पेश किए गए थे और उनमें से कुछ बहुत बूढ़े हो कर भी आज भी गुमनाम जेलों में जिंदा है। कसाब की जिंदगी लेने की बजाए बर्बाद करना ज्यादा बेहतर न्याय है। मैं वकील नहीं हूं मगर इतना जानता हूं कि कसाब और उसके मारे गए साथियों ने जो किया है वह दुर्लभ से दुर्लभतम अपराध है और भारतीय कानून में  इसकी सजा फांसी के अलावा कुछ नहीं हो सकती। मगर कसाब को मौत दे कर हम आतंकवादियों को एक तर्क देंगे कि आखिर वे वतन और इस्लाम के लिए शहीद होने जा रहे हैं। पक्का मान लीजिए कि जिस दिन कसाब को हमने फांसी पर चढ़ाया उसी दिन पाकिस्तान में  सरबजीत सिंह फांसी पर झूल जाएगा। पाकिस्तान की यह पुरानी अदा रही है। एक पाकिस्तानी राजनयिक को जासूसी के इल्जाम में भारत से निकाला जाता है तो उसी समय पहले से तैयार दूसरे किसी भारतीय राजनयिक की फाइल खोल कर उसे भी जासूसी के इल्जाम में बाहर कर दिया जाता है। भारतीय जेल में किसी पाकिस्तानी आस्था वाले आतंकवादी जैसे मकबूल भट्ट को फांसी दी जाती है तो पाकिस्तान का जल्लाद भी एक भारतीय कैदी को फांसी पर चढ़ा देता है। आखिर ऍफ़बीआई ने पाकिस्तानी सेना के रिटायर मेजर अब्दुर रहमान हासिम सईद के खिलाफ पूरी फाइल तैयार कर ली है और इस फाइल में साफ साफ लिखा है कि सईद और इलियास कश्मीरी पाकिस्तान की ओर से दाऊद गिलानी उर्फ डेविड हेडली की मदद करते रहे हैं। कसाब भारत में कोई तीर्थ यात्रा करने नहीं आया था। यह निपट संयोग और मुंबई पुलिस की सफलता है कि कसाब को गिरगांव चौपाटी पर जिंदा पकड़ लिया गया। मारा जाता तो जैसे बाकी नौ आंतकवादियों और इसके पहले भारत की संसद पर हमला बोलने वालों की लाशे तक पाकिस्तान ने स्वीकार नहीं की थी, वैसे ही उसकी लाश भी दफन कर दी जाती। भारत सरकार ने तो इन कातिलों की दफन करने की खबर तक गोपनीय रखी। हम भारतवासी पाकिस्तान के साथ जो गलती बार बार कर रहे हैं उसे फिर से दोहराने का कोई फायदा नहीं है। हमारे पास स्पष्ट और तार्किक कारण था कि मुंबई पर हमला होते ही पाकिस्तान के आतंकवादी शिविरों पर बम गिरा देते। हमला होता, युद्व होता और हमेशा की तरह भारत ही जीतता। मगर पाकिस्तान को उसकी हैसियत में रखने का एक ही उपाय था जिसे हमने वैसे ही चूक दिया जैसे कारगिल में अटल बिहारी वाजपेयी ने नियंत्रंद  रेखा सेना को पार नहीं करने देने की ऐतिहासिक भूल की थी। यह संयोग नहीं हैं कि जिस दिन कसाब को मुंबई हत्याकांड के लिए दोषी ठहराया गया और यह तय माना गया कि उसे फांसी की सजा ही मिलेगी तो उत्तरी वजीरिस्तान में  खालिद ख्वाजा नाम के एक 58 वर्षीय आईएसआई अधिकारी की लाश मिली जो सीआईए के साथ मिल कर काम भी कर रहा था। मुंबई के कत्लेआम के सूत्रधारो में खालिद ख्वाजा का नाम भी है। जाहिर है कि पाकिस्तान कसाब को खुद बलि चढ़ाना चाहता है और उसके सारे संपर्को को खत्म कर देना चाहता है ताकि भारत के पास कोई सबूत नहीं रहे। वजीरिस्तान के लोग खुद सवाल कर रहे हैं कि ख्वाजा की हत्या इतने अचानक कैसे की जा सकती है? वह भी इतनी बेरहमी से कि माथे से ले कर कमर तक चौबीस गोलियां लगी और इसके बाद बाकायदा एक साफ कफन में लपेट कर उसे एक सार्वजनिक स्थान पर छोड़ दिया गया। पेशावर में मौजूद पाकिस्तानी सेना के एक रिटायर्ड जनरल शाद मोहम्मद सही कहते हैं कि पाकिस्तान की जनता अब खुद आतंकवाद का स्वाद झेल रही है और उसे भुलावे में रखने के लिए पाकिस्तान की सरकार अपने बड़े आतंकवादी सरगनाओं को बलि चढ़ा रही है। अगला नंबर दाऊद इब्राहीम का भी हो सकता है। आखिर उसके भाई नूरा को आईएसआई के समर्थन से एक डाकू ने सरेआम मार ही गिराया था। एक है सुल्तान अमीम तरार जो 1970 और 1980 के बीच तालिबान के साथ मिल कर आईएसआई की लड़ाई लड़ते रहे थे मगर अब पाकिस्तान ने उन्हें नजरबंद कर दिया है। हमे यह समझना चाहिए कि पाकिस्तान के शासक और पाकिस्तान की जनता को आप एक ही तराजू में रख कर नहीं तौल सकते। पाकिस्तान और भारत की विरासत एक है, दोनों के कुल कुटुंब एक दूसरे देश मंे बिखरे हुए हैं, पाकिस्तानियों का तीर्थ अजमेर और देवबंद भारत में हैं और आम पाकिस्तानी कभी नहीं चाहता कि भारत पर आतंकवाद का हमला किया जाए। भारतीय सेना और सुरक्षा बलों ने जब से मुंहतोड़ जवाब देना शुरू किया है तब से पाकिस्तान में ही ये आतंकवादी गदर मचाए हुए हैं। उन्हंे मरने और मारने के अलावा कुछ नहीं आता। जहां तक कसाब की बात है तो उसे कड़ी से कड़ी सजा मिलना जायज है मगर फांसी तो उसे मुक्ति दे देगी। उम्र भर जेल में रहेगा तो दुनिया के दूसरे भटके हुए और अपने आपको जेहादी कहने वाले पचास बार सोचेंगे कि जेहाद के रास्ते पर निकले या नहीं?

आशुतोष पाण्डेय

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

sania mirza its BAD play

खेल में तो किसी एक का हारना तय होता है. हो सकता है कि ये मेरी छोटी सोच हो लेकिन हमारी टेनिस प्लयेर सानिया मिर्ज़ा ने तो खेल-खेल में देश कि रेल लगा दी. यानी   सरहदों पर हो रहे खेल में हम हार  गए. सानिया ये बात तो सही है कि प्यार रंग और देश नहीं देखता. प्यार को किसी बंधन में बाँधा नहीं जा सकता हैं. अच्छी मिसाल है. सानिया जी क्या इस देश में अच्छे मुस्लिम नहीं हैं, जिसके लिए आपको सो रही  स्वतंत्र देश माता को लाँघ कर आतंकवाद से अलंकृत  देश में निकाह के लिए जाना पड़ रहा है . मै ये नही कहता कि सभी पाकिस्तानी आतंकवादी हैं. लेकिन एक बात और तय हो जाना जरुरी है कि देश का स्वाभिमान बनाये रखने के लिए आप जैसे लोगो कि जरुरत नही है. सानिया जी आपने अब तक जो शाख देश के लिए बनायी थी हम धन्यवाद देते हैं लेकिन उन सबको पल भर में मिटटी में मिला दिया. गैरत हैं कि जिन्दादिली और मोहब्बत जिस देश में गंगा कि तरह अविरल बहती हो उस देश से आपका परदेसी दिल नहीं लग सका. हमारे गाँव में तो लोग जिला से बाहर शादी करने में भी संकोच करते हैं, गाँव कि मर्यादा उनके लिए सर्वोपरि होती है.
  चलो कोई बात नहीं हम लड़की वाले हैं अब पाकिस्तान के लोगो को कुछ  भी कहने और करने का अधिकार हो गया. भले ही  पाकिस्तान के टेनिस असोसिएशन  के एक अधिकारी ने कह दिया हो कि सानिया को अब पाकिस्तान कि तरफ से खेलना चाहिए.  खैर सानिया ने देश का खाया नमक चुकाते हुए कहा कि नहीं मैं भारत से ही खेलूंगी. मेरे घर के एक पड़ोस में शादी का समारोह चल रहा  था तभी एक बाशिंदे ने चुटकी लेते हुए कहा कि चिंता मत करो अभी पाकिस्तान कहेगा कि दहेज़ में कश्मीर दे दो. बात भले ही मजाक में कही  गयी हो लेकिन हमारा पक्ष तो कमजोर ही रहेगा. खैर लेना देना तो दूर कि बात होगी. उनका क्या करें जिन्हें देश को ताक में रख कर शोख महोब्बत हो गयी है. सुर्ख बाला जवानी का ये जोश देश के होश उड़ाने वाला हो गया है. इन्तहा तो देखो पाकिस्तान में खुद को सुरक्षित नहीं समझती हैं , तो दुबई में रहेंगी. लेकिन देश में नही. देश से तो खेल का धंधा करेंगी. फिलहाल देशवासियों बारात जाने वाली है कपडे वपड़े सिलवालो बेईज्ज़त तो पहले भी हो चुके हो अब और न होना.
आहात हूँ दोस्तों , कान्वेंट स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे तुम क्या जानो कि रविन्द्र नाथ टैगोर ने "आखिर जन गन मन अधिनायक जय हो भारत भाग्य विधाता " क्यों लिखा ? सानिया तुम्हारा कोई दोष नहीं, दोष तो उन मुस्लिमो का है जो भारत माँ कि गोद में रहकर कम से कम आपकी तरह प्रेम पंख पाक नहीं किये.
आशुतोष पाण्डेय
दैनिक पंजाब केसरी

शनिवार, 18 जुलाई 2009

कही तो हम भी हैं

ख़ुद को पहचानने में इस तरह दिक्कत हो रही है कि शीशा भी धोखा देने को आतुर है. भीड़ बढती जा रही है. कभी कभी ऐसा लगता है की  पशुओ की भांति हम पैसे की घास चर रहें हैं. चलिए, ये तो बड़ी पुरानी बात है, नई बात हैं की हम अपना वजूद भूलते जा रहे हैं. स्वाभिमान  तो कब का मर चुका है. एहसान और स्वाभिमान के बीच एक दिन शरारत हो गयी. एहसान फरामोश स्वाभिमान निष्कर्ष निकला.
             मेर घर में कुछ विद्वान हैं, कल जब मैं घर गया तो मेरी उनसे एक बात की बहस हो गयी. मुद्दा भी बड़ा अजीब था. अँगरेज़ हमारे  देश में आयें २०० साल राज किया. ये बात ठीक है लेकिन बहस ये थी की अंग्रेजो ने हमें बहुत कुछ दिया ये कहना था मेरे एक एक रिश्तेदर का जो की मेरे घर के बड़े ही खास हैं. मैं उनका सम्मान भी करता हूँ चूकी उन्हें अच्छा खासा ज्ञान है. लेकिन एक बात मेरे मन में खटकती थी की उनकी एक आदत थी की अपनी बात को मनवाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे. मेरी कमी थी की मैं अक्सर शांत रहता था लेकिन जब बोलने का मन बना लेता था तो पीछे नहीं हटता था. साथ मैं अपना आप़ा खो देता था. दरअसल बात का बतंगड़ बनने का कारन ये था की मेरा कहना था की अंग्रेजो ने हमें दिया कुछ नहीं बल्कि उन्होंने  जो किया अपने लिए किया. जिसका फायदा हमने उठा लिय. वे तर्क देते हैं की अंग्रेजो ने देश को शिक्षा व रेल दिया है. ये सब देकर अंग्रेजो ने हम पर उपकार कर दिया हैं.मैंने इस बात को मानने से इंकार कर दिया. आप ही बताएं की आप के घर में आये और जबरदस्ती रहने लगे और घर में सरे सामान पर अपना अधिकार जमने लगे , हो सकता हैं की वो आपकी पुरानी चीज को सही उपयोगी बना दे.बाद में वो घर छोड़ कर चला जाए. तो क्या हम उसका एहसान मानेगे?  ये अपने अपने विचार तय करंगे.
         लेकिन यदि बात अंग्रेजो की हो रही हो तो मै नहीं मानूंगा. शायद लोग भूल  रहे हैं की आजादी दिलाने वाले महात्मा गाँधी को इसी रेल से धक्के मर कर फेंक दिया गया था. यह रेल अंग्रेजो ने अपनी सुविधा के लिए बनाया था गनीमत ये की वे इसे लेकर नही जा सके. शायद एक दिन हम खुद रेल बना लेते. किसने क्या दिया और किसने क्या लिया. इसका निर्णय उलझाने वाला  है. बात होती गयी, शुरुवात में दोनों ओर से  अपनी सारी विद्वता झोख डाली गयी. मजे बात ये थी की हम बार बार एक ही बात को दोहराने लगे. बची खुची विद्वता  ख़तम होने लगी और एक समय आया की सारा ज्ञान ख़तम हो गया. और किसी ने सच कहा है की  जब ज्ञान ख़तम हो जाता है तो इंसानों और जानवरों में कोई फर्क नही रह जाता है. इन्सान के अन्दर बैठा जानवर जाग गया. होना क्या था हालत ऐसे थे जैसे की गली के दो कुत्ते भौंक रहे हों, आवाज जिसकी ऊँची थी वही तेज लग रहा था. आवाज बढती गयी और काफी हद तक बढ़ भी गई , दोनों जानते  थे की  मामला गड़बड़ हो सकता है. बड़ा मुश्किल दौर था बच निकलने का. चूकी  बात स्वाभिमान की लड़ाई तक पहुँच गयी थी. जो शांत होता उसे हार का सामना करना पड़ता. ये बात तो तय है की रिश्तेदार जी को मुझसे जायदा ज्ञान था, तो मैं भी कोई घास फूस नहीं था.  आदत लाचार था की  मै कम ही मौके पर बोलता था लेकिन जब बोलना शुरू किया तो शांत नहीं हो सकता. इसके लिए मेरा तर्क था की मै स्वाभिमान के इतर कुछ भी सौदा नहीं कर सकता. फिलहाल एक प्रश्न मेरे अभिमानी दिमाग में बार बार कौंध रहा है की इस कम्पीटीशन में क्या मुझे शांत हो जाना चाहिए था की अपने स्वाभिमान के लिए लड़ना चाहिए था.
         धीरे धीरे ज्ञान का जो भी थोडा बहुत अंश बचा था वह पूरी तरह ख़तम हो गया था. आंखे जो की अब तक लिहाज से इधर उधर कर रही थी वो अब खुल कर आमने सामने आ गयी. मजे की बात है कि दोनों ओर से निकल रहे शब्द हम दोने के  लिए उतने  बुरे  नही थे कि जितना की इस संग्राम को सुनने  वालो को लग रहे थे. शब्दों ने सारी गरिमा खो दी थी. दोनों विवश थे. जाने अनजाने में क्या क्या कह दिया ये मुझे भी नहीं पता. ये एहसास था कि  मैं छोटा हूँ  और ये भी जनता था की मैंने शिष्टता खो दी है. संघर्ष अपनी चरम पर था रात साढ़े १२ बज गए. गला सूख गया था, थकान चेहरे पर साफ़ देखी जा सकती थी. दोनों के शब्दो में धीरे धीरे अब शांति आ ही गयी थी. दोनों ये समझने लगे थे की अब जायदा हो रहा है.
         इतने में एक ऐसी आवाज आई जो हम दोनों से अलग थी. इस आवाज से बने एक एक शब्द से वाक्य ने मानो पूरी धरा को प्राणहीन कर दिया हो. ऐसा लगा की किसी ने मेरी गर्दन पर तेजधार चाकू से चीर कर वार  कर दिया हो. निर्ममता और नाशकारी वाक्य थे. इस बेदखली ने मुझे निहत्था कर दिया. इससे पहले मेरी शिष्टता इतनी भी ख़तम नहीं थी की किसी को दुखी करता , लेकिन इस वाक्य के बाद कही से भी मुझे शालीनता का परिचय देने की जरुरत नहीं बची थी. मैंने शालीनता  का  सागर अब पूरी तरह लांघ दिया और सूखे आक्रोशित गले से शब्दों कि जो वर्णमाला निकली   जिसने रिश्ते को निश्तेज कर दिया . शब्द कि लय निरशा जनक थी लेकिन गरिमा हीन नहीं थे . हा इतना जरुर था की उतेजना में शब्द की बुलंदी जायदा  ऊपर चली गयी थी.  संभव है की इस बुलंदी ने रिश्तेदार को ऐसा एहसास दिला दिया की मैंने सारी  मर्यादा तोड़ दी हो और उन्होंने  तब वो शब्द कह दिया था जो नित्य एक दलाल दूसरे दलाल को कहता है. इसका  वर्णनं नही बताऊंगा क्योकि आपको मेरी औकात पता चल जाएगी.